मेरी काम वाली बाई
सुबह आती है/काम पे
नखरे बहुत बताती है
हफ़्ते दस दिन में
पगार बढाने का
रट्टा लगाती है
साथ में लाती है
4 बच्चे अपने पीछे
जब तक वह बर्तन करती है
तब तक बच्चे हंगामा करते हैं
मजबूरी है हमारी/सहते हैं
दफ़्तर जाने की जल्दी में
हम और मियां रहते हैं
घर का काम अधिक है
इसलिए काम वाली बाई
के नखरे सहते हैं
चाय नास्ता रोटी खाना
खूब मजे उड़ाती है
4 घरों में और जाती है
धड़ल्ले से खूब कमाती है
जिस दिन मेहमान आते हैं
उस दिन छुटटी कर जाती है
तब मेरा पारा चढ जाता है
मन करता है उसे भगा दूँ
मै और मियां मिलके
सारे बर्तन घिसते हैं
काम वाली बाई के कारण
दोनो खटते पिसते हैं।
दो महीने की तनखा
एडवांस में जाती है
काम बताओ तो हमको
आँखे दिखलाती है
यूनियन का रौब जमाती है
इसे भगा दें तो
दूसरी बाई नहीं आती है
ये काम वाली बाई
इठलाती/इतराती है
प्याज के भाव से
अधिक रुलाती है।
सबका यही हाल
जवाब देंहटाएंभगवान् से भी ज्यादा भक्ति इसके साथ निभानी होती है
http://kuchmerinazarse.blogspot.in/2012/05/blog-post_22.html
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत ही बढि़या ...
जवाब देंहटाएंमन की बातें बोल वाली बात है। कामवाली बाईयों का तो सब जगह एक जैसा ही रवैया है। शहरों में ज्यादा मारा मारी है, पर अब गाँव में भी नहीं मिलती। दो रुपए किलो चावल ने सत्यानाश कर रखा है। बढिया भाव है कविता के। साधुवाद
जवाब देंहटाएंइनके नखरे उठाना ही पड़ता है, कहीं रूठ गई तो मुश्किल हो जाएगी... बढ़िया भाव... सुन्दर कविता
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